मंगलवार, 11 जनवरी 2011

कन्या का मूल्य

कन्या जब औरत बनती है

धीरे -धीरे समाज के
रूप रंग में ढलती है
बचपन बीता माँ के आँगन में
धीरे से जुम्मेदारी आई जवानी में

इस जुम्मेदारी निभाने को
बचपन बदल जाता है
माँ का आंगन छूट जाता

एक नया रिश्ता बन जाता है
जब एक बेटी माँ बन जाती
तब उसे बचपन याद आता है

माँ ने खून पसीना बहा
उसको इतना बड़ा किया
अब उसे भी
यह जुम्मेदारी निभानी है

माँ की एक -एक बात
उसके कानो में गूंजा करती
तब उनकी बात बेमानी लगती थी

आज उन पुरानी बातो को याद कर
उनका मर्म समझती है
इस स्रष्टि की रचना
कन्या से ही बढती है

जब यह कन्या ही नहीं रहेगी
तब स्रष्टि की रचना कौन करेगा
दुनिया नहीं समझती है

दुनिया नहीं समझती है
यही कन्या का मूल्य है
(अधिकार सुरछित है )
कमल मेहरोत्रा  

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